‘दस’ की ‘बारह’ की दो बहनें
रोज जुटाती हैं,
घर के लिए ‘रोटियाँ’, दिन भर
कूड़े से चुनकर।
सर्द हवा है बर्फ गिर रही
तुलसी मुरझाई
शायद आज न निकलें दोनों
‘माई घबराई’
‘दादी’ की कथरी से निकलीं
फटी कमीजों में,
‘लाज खुली’ सूरज ने डाली
कुहरे की चादर।
काट रही है खुली देह को
सर्दी की आरी
तेज-तेज भागती फिर रहीं
दोनों बेचारी
बीड़ी पीते हुए छोकरे
जला रहे टायर
वे भी आग तापने बैठीं,
पास-पास सटकर।
याद आ रहा है ‘दादी’ को
अपना ही बचपन
‘गांधी’ का जयकारा बोलो’’
‘‘बदलेगा जीवन’’
कुछ भी बदला नहीं भूख है
घर की ज्यौं की त्यौं,
बीन रही हैं कूड़ा दादी
फिर पोती बनकर।